स्वयं में साक्षी भाव का जागरण, ज्ञान बोध के लिए स्वयं में साक्षी भाव का होना जरूरी
- आध्यात्मिक उन्नति के लिए ज्ञान बोध आवश्यक है। ज्ञान बोध के लिए स्वयं में साक्षी भाव का होना जरूरी है।
आध्यात्मिक उन्नति के लिए ज्ञान बोध आवश्यक है। ज्ञान बोध के लिए स्वयं में साक्षी भाव का होना जरूरी है। ताकि आप अपने अंदर-बाहर के प्रति जाग्रत बने रहें। जब आपमें अपने आसपास या भीतर हो रही क्रियाओं के प्रति साक्षी भाव जागेगा, तो आप सचेत हो सकेंगे। ऐसे में कोई भी भाव अधिक समय तक आत्मा में टिक नहीं पाएगा। यह अभ्यास धीरे-धीरे अंतरतम को राग-द्वेष से रहित निर्मल और आनंदमयी बना देता है।जग या सचेत होना वह तीर है, जो दो दिशाओं में एक साथ यात्रा करता है। जब आप तर्कश से लक्ष्य भेदने के लिये तीर चलाते हैं, तो वह तीर सिर्फ आपकी बताई दिशा में चलता है। लेकिन सजगता उस तीर का नाम है, जो एक साथ दो दिशाओं में चलता है। सजगता का अर्थ बाहर के प्रति या भीतर के प्रति या दोनों के प्रति सचेत होने के साथ-साथ अपनी सजगता के प्रति भी पूरा सचेत होना है। यह हुआ पूर्ण सचेत होना। अंदर और बाहर का भेद किये बगैर, जो भी कुछ घटित हो रहा है, उसका साक्षी होना।साक्षीत्व हमारा स्वभाव है, हालांकि हम अपने साक्षी भाव में नहीं रहते, वह बात अलग है। साक्षी होना किसी प्रक्रिया का नाम नहीं है। अगर आपके लिये साक्षी होना एक प्रक्रिया है, तो याद रहे, हर प्रक्रिया थका देती है, आप चिड़चिड़े हो सकते हैं, ऊब सकते हैं कि बहुत हो गया, अब इसे बंद करें। आप साक्षी हो नहीं सकते, क्योंकि इसमें भी एक तनाव हो रहा है। याद रहे,जहां आपको ‘होना’ पड़े, वहां हमेशा तनाव आ ही जाएगा। सचेत होने का अर्थ है- साक्षी रहते हुए हर पल को पूर्णता से जीना। मैंने एक महात्मा से सुना था कि जैसे 26 जनवरी की परेड में राष्ट्रपति बैठे होते हैं और उनके सामने से सेना की टुकड़ियां सलाम करते हुए गुजरती जाती हैं। राष्ट्रपति चुपचाप बैठकर टुकड़ियों को आते-जाते देखते रहते हैं। बस ऐसे ही, हम राष्ट्रपति हैं और हमारे सामने से इस शरीर, इ्द्रिरयों और संसार की टुकड़ियों का तमाशा गुजरता जा रहा है। बचपन आया और चला गया, जवानी आई-गई, बुढ़ापा आया, दुख आया और चला गया, सुख आया और चला गया। मित्र, दुश्मन, राग, द्वेष, आसक्ति इत्यादि मन के रंग रोज बदलते रहते हैं। हर घड़ी, हर पल मन के इन बदलते हुए रंगों का यह खेल चलता रहता है। एक मिनट में उबाल आया, एक मिनट में शांत हो गया। किसी ने तारीफ कर दी तो क्षण में खुश हो गया और किसी ने निंदा की, तो क्षण मंे उदास हो गया। मन के बदलते हुए रंगों की इस आवाजाही को देखो।साक्षीत्व हमारा मूल स्वभाव है और हम अपने इस मूल स्वभाव को चाहकर भी बदल नहीं सकते। जन्मों-जन्मों से इस मन में विचार, राग, द्वेष की मलिनताओं का गुबार उठता रहा, फिर भी यह गुबार मुझ साक्षी के स्वभाव को बदलने में असफल रहा। लेकिन हम जानते ही नहीं हमारा इस स्वभाव को। जब मैं कहती हूं कि सजग रहो, सचेत रहो, तो इसका अर्थ है साक्षी रहो। साक्षी का अर्थ है कि आपके मन, इ्द्रिरयों और शरीर के अंदर या बाहर जो भी घटित हो रहा हो, वह आपके साक्षीत्व में हो, बेहोशी में न हो। हमें साक्षी होना नहीं है, सिर्फ अपने स्वभाव के प्रति जागरूक होना है। जागरूक होने तक की क्रिया को हम क्रिया कह सकते हैं, लेकिन तुम्हें साक्षी बनाने की कोई विधि नहीं है, वह तो तुम्हारा सहज स्वभाव है। सचेत का अर्थ है, जो कुछ घटित होता है, वह मुझे मालूम है,और महज मालूम ही है, न इससे कुछ ज्यादा, न इससे कुछ कम।
बहिर्मुखी व्यक्ति का मन, बाहर जो कुछ हो रहा है उसमें हमेशा अटका रहता है। एक वैज्ञानिक, एक कवि जैसे अंतर्मुखी व्यक्ति को बाहर से कोई लेनादेना नहीं, लेकिन वह अपने मन की उलझनों में फंसा रहता है। वह अपने मन की ही बनाई दुनिया में जीता है। अंतर्मुखी प्राय: बाहर की घटनाओं में रुचि नहीं रखता। उसे अपने अकेलेपन में ज्यादा रुचि होती है। जैसे बहिर्मुखी प्रवृत्ति एक असामान्यता है, ऐसे ही अन्तर्मुखी होना भी। जैसे एक संसारी संसार में अटक जाता है, ऐसे ही एक त्यागी अपनी चुप्पी में, अपने अकेलेपन में अटक जाता है। अन्तर्मुखी अपने ही विचारों में अटक जाता है। वे विचार चाहे राजनीति के हों, शायरी के हों, धर्म के हों, ग्रंथ के हों, कोई फर्क नहीं है उनमें। तुम्हें बार-बार यही कहा जाता है कि अन्तर्मुखी बनो, बहिर्मुखता छोड़ो। पर जहां हमने बहिर्मुखता से द्वेष और अन्तर्मुखता से राग स्थापित किया, वहां फिर हम साक्षी नहीं रह जाते। मतलब तब हम सजग नहीं रह जाते।जब आप अपने मन के प्रति सचेत होते हैं, तो फिर मन के किसी जाल में फंस नहीं सकते। यहां तक कि मन में काम, क्रोध, राग, लोभ जैसी भावनाएं उठें और उसके प्रति सचेत हो जाएं, तो देखेंगे कि कुछ ही क्षणों में वह भाव विलीन हो जाता है। वह रहता तब है, जब तुम अपने प्रति होशमंद नहीं होते हो। तुम इसी अपने मन के बहाव में बह जाते हो। जो मन के बहाव में बह गया, वह अन्तर्मुखी और जो बाहर के बहाव में बह गया, वह बहिर्मुखी।तुम्हारे सामने देह, इ्द्रिरयां और संसार का सारा जो खेल चल रहा है, उस खेल के प्रति क्या तुम सचेत हो? तुम्हारे कान खुले हैं, तो ध्वनियां आयेंगी ही। जो ध्वनियां आ रही हैं, क्या तुम उनके प्रति सचेत हो या उन ध्वनियों के साथ जुड़कर उनको एक परिभाषा देते रहते हो? क्या तुम उनसे जुड़े बगैर तटस्थ रहते हो?
जो सचेत है, सजग है, वह मन के भीतर जो घटित हो रहा, उसके प्रति और इ्द्रिरयों के द्वारा ग्रहण की गई बाहरी जगत की संवेदनाओं के प्रति साक्षी तो होता है, उन सबकी जानकारी तो उसको होती है, परंतु किसी भी दृश्य से, शब्द से, रूप से, रंग से, विचार से, मन की लहर से, मन के भाव से, उसका कोई तादात्म्य नहीं होता है। इसी लिये कहा कि सचेतता दो दिशाओं में चलने वाला वह तीर है, जहां आप मन और मन के बाहर की घटनाओं के प्रति सजग रहते हैं, साथ ही आप अपनी सजगता के प्रति भी सजग रहते हैं। ऐसी सजगता आपको स्वयं के और समीप ले जाती है, जहां से परमात्मा में एकाकार होने का मार्ग अधिक सरल बन जाता है।