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हिंदी की उन्नति के बगैर देश के विकास की कल्पना बेमानी

10 Jan 2019

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हिंदी की उन्नति के बगैर देश के विकास की कल्पना बेमानी

 

एक डोर में सबको जो है बाँधती
वह हिंदी है,
हर भाषा को सगी बहन जो मानती
वह हिंदी है।
भरी-पूरी हों सभी बोलियां
यही कामना हिंदी है,
गहरी हो पहचान आपसी
यही साधना हिंदी है,
सौत विदेशी रहे न रानी
यही भावना हिंदी है।

-जीके माथुर

 

ऐसे समय में जब अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा का वर्चस्व बढ़ता ही जा रहा है, दुनिया की कई भाषाएं अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं, हमारी हिंदी लहरों की तरह अनवरत समृद्धि की तरफ अग्रसर है। आज हम विश्व हिंदी दिवस मना रहे हैं, जिसकी नींव 10 जनवरी 1975 को ही पड़ गई थी। नागपुर में अयोजित पहले विश्व हिंदी सम्मेलन में प्रत्येक वर्ष 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाने का प्रस्ताव पारित हुआ था और नॉर्वे के भारतीय दूतावास में पहली बार इस दिवस पर कार्यक्रम आयोजित हुए थे।

देश में पहले से ही 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाने की परंपरा थी, फिर भी विश्व हिंदी दिवस मनाने का उद्देश्य अपनी राजभाषा का प्रचार-प्रसार करना था। पाकिस्‍तान, नेपाल, बांग्‍लादेश, अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, न्‍यूजीलैंड, संयुक्‍त अरब अमीरात, युगांडा, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद, मॉरिशस और दक्षिण अफ्रीका समेत दुनिया के कई देशों में बोली जाने वाली हिंदी को वैश्विक स्तर पर वह सम्मान दिलाने के लिये इस दिवस की आवश्यकता पड़ी, जिसकी यह हकदार है। इसके अच्छे परिणाम भी हमें मिले और आज हिंदी सभी 206 देशों में एक अरब तीस करोड़ से अधिक बोलने वालों के साथ दुनिया की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है, जो हमारे लिये गौरव का विषय है।

वैश्विक भाषा के रूप में मजबूत उपस्थिति दर्ज करा रही हिंदी के समक्ष आज कई चुनौतियां भी हैं। हमारी हिंदी को वैश्विक सम्मान तो मिला, लेकिन अंग्रेजी के मोह में पड़ी नई पीढ़ी इससे विमुख होती जा रही है। ऐसे में हम सबके प्रेरणास्रोत, प्रखर वक्ता एवं यशस्वी कवि आदरणीय अटलजी बरबस ही याद आ जाते हैं। अटलजी ने देश का विदेश मंत्री रहते हुए सन 1977 में संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन को पहली बार हिंदी में संबोधित कर राजभाषा का मान बढ़ाया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान जनसंपर्क के लिये हिंदी को उपयुक्त भाषा माना और इसका उपयोग किया। हमें यह समझने की जरूरत है कि अंग्रेजी कॅरियर की भाषा तो हो सकती है, लेकिन लोक की भाषा नहीं।

यह अच्छा है कि हम अधिकाधिक भाषाएं जानें और बोलें, लेकिन इस सच्चाई को भी स्वीकार करना होगा कि हमारी सोचने की भाषा हिंदी है। नष्ट हो रही वर्तनी, हिंग्लिश के बढ़ते चलन से हमारी प्यारी हिंदी का चिंदी-चिंदी होना हमारे लिये दुर्भाग्यपूर्ण है। इसके लिये अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा जिम्मेदार है। मध्यप्रदेश के लाल, हिंदी के पहले कहानीकार माधवराव सप्रे ने कहा था, “विदेशी भाषा में शिक्षा होने के कारण हमारी बुद्धि भी विदेशी हो गई है।” जब हम चीन, जापान, रूस जैसे विकसित देशों की ओर देखते हैं, तब हमें सप्रे जी के इन वाक्यों का सहज ही ध्यान हो आता है। इन सभी देशों ने अपनी भाषा में शिक्षा से विकास की ऊंचाइयों को प्राप्त किया। हमें अपनी राजभाषा को हेय दृष्टि से देखने की मानसिकता बदलनी होगी। हिंदी की उन्नति के बगैर देश के विकास की कल्पना बेमानी होगी। भारत को फिर से विश्व गुरू, सोने की चिड़िया बनाना है तो हिंदी को शिक्षा की भाषा बनाना होगा। अपनी बात भारतेंदु हरिश्चंद्र की इन पंक्तियों के साथ समाप्त कर रहा हूं-

निज भाषा उन्नति अहैसब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा ज्ञान केमिटत न हिय को सूल।।

 

जय हिंदी, जय हिंद!

आपका

शिवराज